Wednesday, December 8, 2010

दो कविताएँ



वेद से पहले तुम थे
 
बाबूराव बागुल

वेद से पहले तुम थे
वेद के परमेश्वर से पहले तुम थे
पंच महाभूतों का देख
विराट,विकराल रूप
तुम व्यथित विफल होते थे
और हाथों को उठाकर
तुम कर रहे थे याचना
उन याचनाओं का नाम है 'ऋचा '
सभी ईश्वरों के जन्मोत्सव
तुमने ही मनाये
सभी प्रेषितों का नामकरण संस्कार
तुमने ही सानंद मनाया
हे मानव
तुमने ही सूर्य को कहा सूर्य
और सूर्य सूर्य बन गया
तुम ने ही कहा चन्द्र को चन्द्र
और चन्द्र, चन्द्र बन गया
अखिल विश्व का नामकरण
तुम ने ही किया
और, हर एक ने कबूल किया.
हे प्रतिभावान मानव
तुम ही हो सब कुछ
तुम से ही तो सम्प्राण सुंदर
बन गयी है यह मही

~अनुवाद निशिकांत ठकार~ 
 
 

तू मेरा बाप है
 
प्रज्ञा पवार

तू मेरा बाप है
और मै तेरी बेटी क्या इतना सा ही है अपने बीच का रिश्ता !
इस जैविक बिंदु से परे मैं तुझे पहचानती
और तू मुझे

अक्षरमाला से अक्षरों तक की इस राह पर
तुने मुझे क्या दिया
और मैंने तुझ से क्या लिया
तूने कभी गूंथने नहीं दिया मेरे मन को
अभावों के खिलौनों में
चौका-बर्तन के और गुड़ियों के काले साए
तूने पड़ने नहीं दिए मेरी कोमल किरणों पर
मैं सहजता से मुक्त हुई
बिन्दुओं की सफ़ेद रंगोली से
और कसीदे की आड़ी- तिरछी चौखट से

तूने दिखाया मुझे
गाँव सिवान के टुकड़े करने वाला
अतीत का दुखता पट्टा
और वर्तमान में उफनता
चैत्य भूमि का शांत महासागर
मोमबत्तियों की मद्धिम रौशनी में
आँखों की चमकती पुतलियाँ
और ख्वाबों की गठरी लेकर लौटते
अपने ही विराटबौने पाँव

तेरे भीतर सदा गदगद दुःख से व्याकुल पेड़ को
फूटती गई टहनियां बेकाबू
फिर भी कभी तूने काटा नहीं उन्हें
अपने दिल की डंठल से
सहता गया अपने साथ सभी को
और देता गया अर्थ झरे हुए संबंधों को
सचमुच, तू कौन है मेरा ?
बाप ...दोस्त ...प्रियतम सखा
जब आगे की जमीन ओझल होने लगी
और मेरे चुने हुए फूल के शव बहते आये
काले घने हौज में
तब तूने मेरे हर आक्रोश यातना को
शांत किया असीम प्रेम से
दिखाया आकाश का मेघ रहित नीलापन ....
आगे का सब कुछ तुझे पता है
तूझे पता है मेरी शाश्वत दिशाएं
और मुझे निरंतर सहेजी हुई तेरी उजली सी
कोमलता

तू मेरा बाप है
और मैं तेरी बेटी
इतना ही नहीं अपने बीच का रिश्ता 
तुम्हारे भीतर सदा गदगद दुःख से व्याकुल पेड़ से
सुनाई देती है हरी- भरी अनोखी सरसराहट
तू ही बता
किस तरह से वह खिल आई है

~अनुवाद- प्रफुल्ल शिलेदार~

Tuesday, November 23, 2010

छोटे - बड़े लोगों के दुख

शरद कोकास की एक हिन्दी कविता

दुख

बड़े लोगों ने अपने दुख
बड़े करके देखे
छोटे लोगों ने देखे करके छोटे
इस तरह
छोटे लोग बड़े हुए
और बड़े लोग हुए छोटे

इस कविता का मराठी अनुवाद स्वयँ कवि द्वारा

दुख


मोठ्यांनी आपले दुःख
मोठे करून बघितले
लहानांनी लहान करून बघितले
अशा रीती ने
लहान लोक झाले मोठे
आणि मोठे लोक झाले लहान|

Saturday, November 20, 2010

उम्मीद थी कि शहर में कल कुछ होगा ज़रूर

लोकनाथ यशवंत की मराठी कविता का किरण मेश्राम द्वारा हिन्दी अनुवाद 

जागृति 

रात होते ही शहर में पोस्टर लगा  देते हैं
ये वो जज़्बा कि पूरी रात गुज़ार देते हैं

उम्मीद थी कि शहर में कल कुछ होगा ज़रूर
सोये भी थे रात में जैसे के जागे हुए हैं

मैंने देखा ज़ुबान खामोश थी हर किसी की
साथ दीवारों के रास्ते भी बोल रहे थे

शहर भी खामोश था मातम की तरह
लग गये लोग काम में अपना हक़ भूल कर

खामोश शहर की सड़क पर कल भटकते देखा
 डालकर आँखों में आँखें लोग बाते कर रहे हैं ।
डब्ल्यू कपूर की इस मराठी कविता ' ज़खम  ' का हिन्दी अनुवाद कपूर वासनिक द्वारा

 ज़ख्म 

कल का ज़ख्म 
कुछ और था 
ऐसे कैसे कहूँ दोस्त  
पीड़ा के आवर्तनों की जाति
एक ही तो है 
माना आज सिर्फ खरोंच आई है 
भलभलाकर 
खून नहीं बह रहा कल की तरह 
लेकिन आज की खरोंच ही से 
कल का ज़ख्म हरा हो उठा
उसका क्या ...?

हिन्दी और मराठी की कवितायें



कालची जखम


कालची जखम वेगळीच होतीअसे कसे म्हणू मित्रा
वेदनांची आवर्तने सारी एकाच जातीची
कबूल! आजचा वार निसटता आहे 
भळभळून रक्त वाहत नाही कालसारखे
पण, आजच्या ह्या निसटत्या वारानेच
कालची जख्म जर्द झाली त्याचे काय?


-डब्ल्यू कपूर


000
वाटेनेच आपला धर्म बदलला


हे मात्र पहिल्यांदाच अनुभवतो आहे
नाही असे नाही
तसे चिमटे ह्या आधीही काढले होते
खरे सांगतो,
पायांना ते कधी झोंबलेच नाहीत
आज असे कसे होत आहे ?
चक्क चटके बसताहेत निखारयांचे   
माझ्या आधीही कित्येक गेलेत ना ह्या वाटेने 
मग मलाच कां ही जीवघेणी सजा ?
माझे पायच झालेत अधिक संवेदनशील
की वाटेनेच आपला धर्म बदलला ?
-डब्ल्यू. कपूर