Saturday, November 20, 2010

उम्मीद थी कि शहर में कल कुछ होगा ज़रूर

लोकनाथ यशवंत की मराठी कविता का किरण मेश्राम द्वारा हिन्दी अनुवाद 

जागृति 

रात होते ही शहर में पोस्टर लगा  देते हैं
ये वो जज़्बा कि पूरी रात गुज़ार देते हैं

उम्मीद थी कि शहर में कल कुछ होगा ज़रूर
सोये भी थे रात में जैसे के जागे हुए हैं

मैंने देखा ज़ुबान खामोश थी हर किसी की
साथ दीवारों के रास्ते भी बोल रहे थे

शहर भी खामोश था मातम की तरह
लग गये लोग काम में अपना हक़ भूल कर

खामोश शहर की सड़क पर कल भटकते देखा
 डालकर आँखों में आँखें लोग बाते कर रहे हैं ।

10 comments:

  1. कविता और अनुवाद दोनो-अद्भुत
    www.maheshalok.blogspot.com- डा० महेश आलोक

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  2. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति|

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  3. अनुवाद में रदीफ़-काफ़िए का भी खयाल रखें.... मात्र सुझाव :)

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  4. आलेख-"संगठित जनता की एकजुट ताकत
    के आगे झुकना सत्ता की मजबूरी!"
    का अंश.........."या तो हम अत्याचारियों के जुल्म और मनमानी को सहते रहें या समाज के सभी अच्छे, सच्चे, देशभक्त, ईमानदार और न्यायप्रिय-सरकारी कर्मचारी, अफसर तथा आम लोग एकजुट होकर एक-दूसरे की ढाल बन जायें।"
    पूरा पढ़ने के लिए :-
    http://baasvoice.blogspot.com/2010/11/blog-post_29.html

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